आप्री
यन्त्रोपारोपितकोशांशः
सम्पाद्यताम्वाचस्पत्यम्
सम्पाद्यताम्
पृष्ठभागोऽयं यन्त्रेण केनचित् काले काले मार्जयित्वा यथास्रोतः परिवर्तयिष्यते। तेन मा भूदत्र शोधनसम्भ्रमः। सज्जनैः मूलमेव शोध्यताम्। |
आप्री¦ स्त्री आप्रीणात्यनया आ--प्री--ड गौरा॰ ङीष्। प्रया-जयाज्यायाम्
“प्रैषेभिः प्रैषेणाप्नोत्याप्रीभिराप्रीर्य-ज्ञस्य” यजु॰
१९ ,
१९ ।
“आप्रीभिः प्रयाजयाज्याभिः” [Page0751-a+ 38] वेददी॰ ताश्च याज्याः सूक्तविशेषात्मका गोत्रभेदेनभिन्नरूपाः
“एकादश प्रयाजाः तेषां पैषाः प्रथमं प्रैषसूक्त-मुक्तं द्वितीये। अध्वर्युप्रेषितोमैत्रावरुणः प्रेष्यति प्रेषै-र्होतारम्। होता यजत्याप्रीभिः प्रैषलिङ्गाभिः” इत्यु-पक्रम्य
“समिद्धो अग्निरिति” शुनकानां
“जुषस्व नःसमिधमिति वशिष्ठानां,
“समिद्धो अद्येति” सर्व्वेषाम् यथा-ऋषि वा” इति आश्व॰ श्रौ॰ गोत्रभेदेन सूक्तभेदस्योक्तेः। अत्र नारायणवृत्तिः।
“यो यस्य ऋषिस्तदानुगुण्यंयथर्षिशब्देनोच्यते तथा वाप्रीसूक्तं ग्रहीतव्यम्। स्वयंवा ऋषिनामधेयस्यानुगुणा आप्र्यः कर्त्तव्या इत्यर्थः। तत्र भगवता शौनकेन यथाऋषिपक्षे आप्रीविवेकार्थमेवश्लोक उक्तः।
“कण्वाङ्गिरोऽगस्त्यशुनका विश्वामित्रोऽत्रिरेवच। वशिष्ठः कश्यपो वाध्र्यश्वो जमदग्निरथोत्तमः”। तत्रदशानां सूक्तानां प्रथमं कण्वानाम्
“सुमिद्धो न आवह” इति। द्वितीयं तद्वर्जितानामङ्गिरसाम्,
“समिद्धो अग्नआवह” इति। तृतीयमगस्त्यानाम्,
“समिद्धो अद्यराजसि” इति। चतुर्थं शुनकानाम्,
“समिद्धो अग्निर्निहितः” इति। पञ्चमं विश्वामित्राणाम्,
“समित्समित्सुमनाः” इति। षष्ठमत्रीणाम्,
“ये समिद्धाय शोचिषे” इति। सप्तमं वशिष्ठानाम्,
“जुषस्व नः समिध” इति। अष्टमंकश्यपानाम्
“समिद्धो विश्वतस्पतिः” इति। नवमं वाध्र्य-श्वानाम्,
“इमां मे अग्ने समिधं जुषखेड” इति। शुनक-वाध्र्यश्वानाम् भृगूणां दशमं,
“समिद्धो अद्य मनुषोदुरोणः” इति यथर्षिपक्षे विवेकोऽयम्”।
Apte
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आप्री [āprī], f. [आप्रीणात्यनया आ-प्री-ड-गौरा˚ ङीष्] Ved.
Conciliation, propitiation, gaining one's favour.
(pl.) 'Propitiatory verses', a name given to certain invocations addressed to several deified objects in consecutive order, and said to be introductory to the animal sacrifice; some take the Apris to represent the objects themselves, the verses being consequently called Apri verses. The objects invoked are 12: Susamiddha, Tanūnapāt, Narāśaṁsa, the divine being bearing invocations to the gods, Barhis, the doors of the sacrificial chamber, night and dawn the two divine beings protecting the sacrifice, the three goddesses Ilā, Sarasvatī, and Mahī, Tvaṣṭṛi, Vanaspati and Svāhā, (all these being regarded by Sāyaṇa to be different forms of Agni); स एता आप्रीरपश्यत्ताभिर्वै स मुखत आत्मानमा- प्रीणीत; cf. also Max Muller's Hist. Anc. Lit. pp. 463-466.
Monier-Williams
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आप्री/ आ- P. ( -प्रीणातिAitBr. ii , 4 ; aor. Subj. 2. sg. -पिप्रयस्RV. ii , 6 , 8 )to satisfy , conciliate , propitiate , please RV. TS. S3Br. ; to address or invoke with the आप्री(See. below) verses AitBr. S3Br. : A1. ( impf. आ-प्रीणीत)to amuse one's self , be delighted or pleased TS. La1t2y.
आप्री/ आ-प्री f. gaining one's favour , conciliation , propitiation
आप्री/ आ-प्री f. pl. ( -प्रियस्[ AV. xi , 7 , 19 ] and -प्र्यस्[ नारायण])N. of particular invocations spoken previous to the offering of oblations (according to A1s3vS3r. iii , 2 , 5 seqq. they are different in different schools ; e.g. समिद्धो अग्निर्RV. v , 28 , 1 , in the school of शुनक; जुषस्व नःRV. vii , 2 , 1 , in that of वसिष्ठ; समिद्धो अद्यRV. x , 110 , 1 , in that of others ; नारायणon this passage gives ten hymns belonging to different schools ; See. also Sa1y. on RV. i , 13 [ सुसमिद्धो न आ वह, the आप्री-hymn of the school of कण्व] , who enumerates twelve आप्रीs and explains that twelve deities are propitiated ; those deities are personified objects belonging to the fire-sacrifice , viz. the fuel , the sacred grass , the enclosure , etc. , all regarded as different forms of अग्नि; hence the objects are also called आप्रीs , or , according to others , the objects are the real आप्रीs , whence the hymns received their names) AV. TS. A1s3vS3r. etc.
Vedic Rituals Hindi
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आप्री स्त्री.
1. सूक्त के मन्त्रों के द्वारा सम्बोधित देवता । देवतागण। निरु. 8.22 ने इसे ‘आप्’ (प्राप्त करना) से निष्पन्न माना है। 2. वह ऋचा जो देवता को तृप्त अथवा प्रसन्न करती है, ऐ.ब्रा. 6.4; आप्रीभिराप्रीणाति, प्री ‘प्रसन्न करना से; श.ब्रा. 3.8.1.2 इसे पॄ पूरणे (भरना, पूरा करना) से निष्पन्न मानता है। निरुक्त ऋग्वेद 1०.11० की 7.2.2 को योग के साथ एवं उन्हें तीन वर्गों में विभाजित कर आप्री सूक्त के रूप में स्वीकार करता है ः तनूनपात् एवं नराशंस; केवल नराशंस एवं केवल तनूनपात्, (सभी 11 में) जिसमें 11वां ‘प्रैषाध्याय’ है; विभिन्न गोत्रों के आप्रीयों का अभिज्ञान (पहचान) करता है (तु.तै.सं. 4.1.8; तै.ब्रा 2.6.12 एवं 18 एवं हागकृत ऐ.ब्रा. का अनुवाद); पशुयाग की पूर्व-आहुतियों के प्रदान के समय ‘होता’ नामक ऋत्विज् द्वारा पढ़े जाने वाले सूक्त का नाम। अध्वर्यु द्वारा निर्दिष्ट मैत्रावरुण होता को प्रैष देता है, जो (होता) इस पर प्रत्येक प्रैष के तारतम्य में आप्री सूक्त की ऋचाओं को एकैकशः (एक-एक करके) पढ़ता है। यजमानों के विभिन्न गोत्रों में भिन्न-भिन्न सूक्त आप्री सूक्त के रूप में स्वीकार किये गये हैं; शौनक गोत्र के यजमान के लिए ‘समिधो अगिर्न्निहितः’ से प्रारम्भ होता है, जो वसिष्ठ गोत्र वाले यजमान हैं, उनके लिए ‘जुषस्व नः समिधम्, इत्यादि एवं अन्य गोत्रों के लिए ‘समिधो अद्य मानुषो’ इत्यादि से प्रारम्भ होता है। अथवा इनको ऋषियों से सम्बद्ध माना जा सकता है, श्रौ.को. (अं.) I.ii. 816. ये ऋचाएं हैं वा.सं. 29.25-36, जो याज्यायें हैं, एवं इनका पाठ होता द्वारा यजमान के गोत्र के अनुसार प्रयाज (पशु) में आहुतियों को डालते समय किया जाना चाहिए। ऋ.वे. में कुल मिलाकर 1० आप्री सूक्त हैं, जिनमें ये ऋचाएं आती हैं, प्रत्येक भिन्न गोत्र के लिए नियत’, ऋ.वे. 1.13 (मेधातिथि कण्व); 1.142 (दीर्घतमस् औचथ्य, अङ्गिरस); 1.188 (अगस्त्य); ऋ.वे. 2.3 (गृत्समद एवं शौनक); ऋ.वे. 3.4 (विश्वामित्र); ऋ.वे. 5.5 (अत्रि); 7.2 (वशिष्ठ); 9.5 (कश्यप); 1०.7० (वध्र्यश्व); 1०.11० (जमदगिन्); आश्व.श्रौ.सू. 3.2.5.9; पशु में 11 प्रयाजों के तारतम्य अथवा सामञ्जस्यानुसार आप्री सूक्तों के लिए संयोजन, देखें - कैलेण्ड, पञ्च. ब्रा. 413.14; हि.ध. (2). 1118.19, ये आप्री ऋत्विजों के परिवारों के बीच मैत्रीभाव के लिए गीत के रूप में प्रयुक्त रही होंगी, मैक्समूलर, प्रा.सं.सा. का इतिहास 247; तु.शां.श्रौ.सू. 5.16.5; ‘आप्रियो द्वादशोर्ध्वा अस्येति’ का.श्रौ.सू. 16.1.12; आप.श्रौ.सू. 14.31.8; बौ.श्रौ.सू. 15.28.9; देखें - पोतदार के.आर.; PAIOC Pt.II, नागपुर 1951 पृ. 47.56।