यन्त्रोपारोपितकोशांशः

सम्पाद्यताम्
 

पृष्ठभागोऽयं यन्त्रेण केनचित् काले काले मार्जयित्वा यथास्रोतः परिवर्तयिष्यते। तेन मा भूदत्र शोधनसम्भ्रमः। सज्जनैः मूलमेव शोध्यताम्।


चतुरवत्त/ चतुर्--अवत्त n. ( अव-दो)" 4 times cut off or taken up , consisting of 4 अवदानs " , 4 अवदानs TS. ii S3Br. i Ka1tyS3r. iii.

 

पृष्ठभागोऽयं यन्त्रेण केनचित् काले काले मार्जयित्वा यथास्रोतः परिवर्तयिष्यते। तेन मा भूदत्र शोधनसम्भ्रमः। सज्जनैः मूलमेव शोध्यताम्।


चतुरवत्त न.
(चतुः अवत्तम्) ‘चार भागों में विभाजन’। (विशेषतः) पुरोडाश के आहुति-दान में संसक्त चार भाग (तुल.-अवदान) अथवा संक्रियायें। ये संक्रियायें हैं ः सर्वप्रथम पात्र में आज्य का उपस्तरण (परत, तह) बनाना, पुरोडाश के दो कतरों को काटना। अन्त में कटे हुए भाग (अवत्त भाग) पर आज्य का अभिघारण (उड़ेलना); चतुरवित्तिन् (में यह शब्द द्रष्टव्य है; वि. उपयुक्त क्रिया का अनुसर्ता (अनुसरण करने वाला या करने वाला), आप. श्रौ. सू. 11.18.9; तुल. श.ब्रा. 1.6.1.21. जुहू में स्रुव द्वारा चार बार ‘आज्य’ लेने के बारे में भी कथित, आप. श्रौ. सू. वही (दर्श)। पाँच संक्रियाअों वाले ‘पञ्चावत्त’ में प्रक्रिया भिन्न होती है। पञ्चावत्त की पाँच संक्रियायें हैं, ‘उपस्तरण’ एवं अभिघारण के अतिरिक्त पुरोडाश के तीन कतरों को काटना। जमदगिन् का कुल (परिवार) इस प्रक्रिया का पालन करता है, इसलिए वे ‘पञ्चावत्तिन्’ कहलाते हैं, च 224 आप. श्रौ. सू. 11.18.2 (पञ्चावत्तं जमदगनीनाम्), का.श्रौ.सू. 1.9.3 (तेन जमदगनीनां पञ्चावत्तमेवेति नियमः, इतरेषां चतुरवत्तं पञ्चावत्तं वा विकल्पः, स.वृ. 1.9.5); पशुयाग में ‘चतुरवत्तिन्’ होने की स्थिति में भी वध्य के वपा से पाँच उसी प्रकार की संक्रियायें होती हैं, आप.श्रौ.सू. 7.2०.1०; मै.सं. 1०.7.72; दुग्ध एवं अन्य द्रव का पाँच आहरण, आप.श्रौ.सू. 6.8.2. षडवत्त में छः संक्रियायें होती हैं ः अगनीध्र के हाथ में अथवा कटोरे में ‘उपस्तरण’, दो कतरों को काटना, पुनः एक कतरे के लिए ‘उपस्तरण’ अौर अन्ततः दूसरे कतरे पर दो ‘अभिघारण’ (उड़ेलना), आप.श्रौ.सू. 3.3.6 अथवा वैकल्पिक रूप से दो ‘उपस्तरण’, दो कतरों को काटना एवं दो अभिघारण, वही. 7. इसका अनुष्ठान आगनीध्र द्वारा किया जाता है, वही 5. किन्तु ‘पितृयज्ञ’ में ‘पञ्चावत्ती’ ‘षडवत्त’ प्रक्रिया का पालन करता है अौर ‘चतुरवत्तिन्’ ‘पञ्चावत्त’ प्रक्रिया का, आप.श्रौ.सू. 8.15.5; भा.श्रौ.सू. 8.19.3 (चातुर्मास्य)। षट्पात्र वारणकाष्ठ से निर्मित दो धसकन (खोखलेपन) से युक्त कटोरा है, का.श्रौ.सू. I.3.36 भाष्य; द्रष्टव्य-श्रौ.प.नि. 31.252-53. (अवत्त - अव + दो + क्त, तु. ‘अच उपसर्गात्तः’, पा. 7.4.47)।

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