सुखस्य दुःखस्य न कोडपि दाता
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददाति इति कुबुध्दिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥
सुख और दुःख देनेवाला कोई नहीं है । दूसरा आदमी हम को वह देता है यह विचार भी गलत है । "मैं करता हूँ" एसा अभिमान व्यर्थ है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)